Friday, 23 June 2017

What is the real reason to leave Siddhartha's house? | क्या था असली कारण सिद्धार्थ का घर छोड़ के जाना ? | काय आहे खरे कारण सिद्धार्थ गौतम चे घर सोडून जाण्याचे?



What is the reason to leave Siddhartha Gautam's house? About this, Babasaheb Ambedkar writes in his book Buddha and his Dhamma: Why did the Buddha take Parivraja? The traditional answer is that he took Parivraja because he saw a dead person, a sick person and an old person. This answer is absurd on the face of it. The Buddha took Parivraja at the age of 29. If he took Parivraja as a result of these three sights, how is it he did not see these three sights earlier? These are common events occurring by hundreds and the Buddha could not have failed to come across them earlier. It is impossible to accept the traditional explanation that this was the first time he saw them. The explanation is not plausible and does not appeal to reason. But if this is not the answer to the question, what is the real answer?
Let's look at answer  without taking much time



क्या कारण था सिद्धार्थ का घर छोड़ के जाना ? इसके बारे में डॉ बी आर आंबेडकरने उनके बुद्ध और उनका धम्म इस ग्रन्थ  में लिखा है ‘बुद्ध ने प्रवज्या क्यों ग्रहण की? परम्परागत उत्तर है कि उन्होने प्रवज्या इसिलये ग्रहण की क्योंकि उन्होने एक वृद्ध पुरूष, एक रोगी व्यक्ति तथा एक मुर्दे की लाश को देखा था । स्पष्ट ही यह उत्तर गले के नीचे उतरने वाला नहीं । जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रवज्या ग्रहण की थी उस समय उनकी आयु २९ वर्ष की थी । यदि सिद्धार्थ ने इन्ही तीन दृश्यो को देखकर प्रवज्या ग्रहण की तो यह कैसे हो सकता है कि २९ वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बुढे, रोगी, तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो? यह जीवन की ऐसी घटनायें है जो रोज ही सैकडो हजारों घटती रहती है और सिद्धार्थ ने २९ वर्ष की आयु होने से पह भी इन्हें  देखा ही होगा । इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असंभव है कि २९ वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बुढे, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और २९ वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम- बार देखा । यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती । तब प्रश्न पैदा होता है कि यदि यह व्याख्या ठीक नही तो फिर इस प्रश्न का यथार्थ  उत्तर क्या है?’ 
चलिए ज्यादा समय न लेते हुए देखते है इसका उत्तर ।


काय कारण आहे सिद्धार्थ गौतम चे घर सोडून जाण्याचे? या बद्दल बाबासाहेब आंबेडकर त्यांच्या बुद्ध आणि त्यांचा धम्म या ग्रंथ मध्ये लिहितात ‘भगवान बुद्धांनी परिव्रज्या का ग्रहण केली? ह्याचे पारंपारिक उत्तर म्हणजे, त्यानी मृत देह, रुग्ण आणि जराजर्जर मनुष्य पाहिला म्हणून. वरवर पाहताही हे उत्तर हास्यास्पद वाटते. बुद्धाने आपल्या वयाच्या एकोणतिसाव्या वर्षी  परिव्रज्या ग्रहण केली. ह्या  तीन दृश्यांची परिणती म्हणून जर त्याने परिव्रज्या ग्रहण केली असली तर ही तीन दृश्ये तत्पुर्वी त्याला कधी कशी दिसली नाहीत? ह्या शेकड्यांनी घडणाऱ्या नेहमीच्या घटना आहेत, आणि त्या तत्पुर्वी बुद्धांच्या सहजच नजरेस न येणे असंभाव्य होते. त्याने त्या ह्याच वेळी प्रथम पाहिल्या हे पारंपारिक स्पष्टीकरण मान्य करणे अशक्य आहे. हे स्पष्टीकरण विश्वासार्ह  नाही आणि ते बुद्धीलाही पटत नाही. पण मग हे जर त्या प्रश्नाचे उत्तर नसेल तर खरे उत्तर तरी कोणते ?’

चला तर जास्त वेळ न घेता पाहूया याचे उत्तर 





Eight years had passed by since Siddharth was made a member of the Sakya Sangh.
He was a very devoted and steadfast member of the Sangh. He took the same interest in the affairs of the Sangh as he did in his own. His conduct as a member of the Sangh was exemplary and he had endeared himself to all.
In the eighth year of his membership, an event occurred which resulted in a tragedy for the family of Suddhodana and a crisis in the life of Siddharth.
This is the origin of the tragedy.
Bordering on the State of the Sakyas was the State of the Koliyas. The two kingdoms were divided by the river Rohini.
The waters of the Rohini were used by both the Sakyas and the Koliyas for irrigating their fields. Every season there used to be disputes between them as to who should take the water of the Rohini first and how much. These disputes resulted in quarrels and sometimes in affrays.
In the year when Siddharth was twenty-eight, there was a major clash over the waters between the servants of the Sakyas and the servants of the Koliyas, Both sides suffered injuries.

सिद्धार्थ को शाक्य-संघ का सदस्य बने आठ वर्ष बीत चुके थे ।
वह संघ का बड़ा ही वफादार और दृढ़ सदस्य था । जितनी दिलचस्पी उसे निजी मामलों  में थी, उतनी ही दिलचस्पी उसे संघ के मामलों  में भी थी ।
उसकी सदस्यता के आठवें वर्ष में एक ऐसी घटना घटी जो सिद्धार्थ के परिवार के लिये दुर्घटना बन गई और उसके अपने लिये जीवन-मरण का प्रश्न ।
इस दु:खान्त प्रकरण का आरम्भ इस प्रकार हुआ ।
शाक्यों के राज्य से सटा हुआ कोलियों का राज्य था । रोहिणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक-रेखा थी ।
शाक्य और कोलिय दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने अपने खेत सींचते थे । हर फसल पर उनका आपस में विवाद होता था कि रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग कौन करेगा? यह विवाद कभी-कभी झगडो में परिणत हो जाते और झगड़े लड़ाइयों में ।
जिस वर्ष सिद्धार्थ की आयु २८ वर्ष की नेई उस वर्ष रोहिणी के पानी को लेकर शाक्यों के नौकरों में और कोलियों के नौकरों में बड़ा झगड़ा हो गया । दोनों पक्षों ने चोट खाई ।


सिद्धार्थाला शाक्य संघाचा सभासद करून घेतल्यानंतर आठ वर्षे लोटली. 
संघाचा तो एकनिष्ठ व बाणेदार असा सभासद होता. स्वतःच्या खाजगी कामात तो जेवढे लक्ष देत असे तेवढेच लक्ष तो संघाच्या कार्यात घालीत असे. संघाचा सभासद म्हणून त्याचे वर्तन आदर्श असे होते व त्यामुळे तो सर्वांना प्रिय झाला होता.
तो संघाचा सभासद झाल्यापासून आठव्या वर्षी एक अशी घटना घडली की, जी शुद्धोदनाच्या कुटुंबाच्या बाबतीत एक दुर्घटना व सिद्धार्थाच्या जीवनातील एक आणीबाणीची स्थिती ठरली.
या दुःखान्तिकेचा आरंभ असा आहे –
शाक्यांच्या राज्याच्या सीमेला लागून कोलियांचे राज्य होते. रोहिणी नदीमुळे ही दोन्ही राज्ये विभागली गेली होती.
रोहिणी नदीचे पाणी शाक्य व कोलीय हे दोघेही आपापल्या शेतीकरिता वापरीत होते. रोहिणी नदीचे पाणी प्रथम कोणी व किती घ्यावे याबद्दल प्रत्येक सुगीच्या हंगामात त्यांचा वाद होत असे. या वादाची परिणती भांडणात व काही प्रसंगी मारामारीतही होत असे.
सिद्धार्थाच्या वयाला अठ्ठावीस वर्षे झाली. त्या वर्षी शाक्यांच्या व कोलियांच्या सेवकांत नदीच्या पाण्यावरून फार मोठा संघर्ष  झाला. दोन्ही बाजूंच्या लोकांना दुखापती झाल्या. 




Coming to know of this, the Sakyas and the Koliyas felt that the issue must be settled once for all by war.
The Senapati of the Sakyas, therefore, called a session of the Sakya Sangh to consider the question of declaring war on the Koliyas.
Addressing the members of the Sangh, the Senapati said : "Our people have been attacked by the Koliyas and they had to retreat. Such acts of aggression by the Koliyas have taken place more than once. We have tolerated them so far. But this cannot go on. It must be stopped and the only way to stop it is to declare war against the Koliyas. I propose that the Sangh do declare war on the Koliyas. Those who wish to oppose may speak."
Siddharth Gautama rose in his seat and said : " I oppose this resolution. War does not solve any question. Waging war will not serve our purpose. It will sow the seeds of another war. The slayer gets a slayer in his turn ; the conqueror gets one who conquers him ; a man who despoils is despoiled in his turn."
Siddharth Gautama continued: " I feel that the Sangh should not be in hase to declare war on the Koliyas: Careful investigation should be made to ascertain who is the guilty party. I hear that our men have also been aggressors. If this be true, then it is obvious that we too are not free from blame."
The Senapati replied : "Yes, our men were the aggressors. But it must not be forgotten that it was our turn to take the water first."
Siddharth Gautama said: "This shows that we are not completely free from blame. I therefore propose that we elect two men from us and the Koliyas should be asked to elect two from them and the four should elect a fifth person and these should settle the dispute."
The amendment moved by Siddharth Gautama was duly seconded. But the Senapati opposed the amendment, saying : " I am sure that this menace of the Koliyas will not end unless they are severely punished."
Accordingly the Senapati put his resolution to vote. It was declared carried by an overwhelming  majority.

जब शाक्यों और कोलियों को इसका पता लगा तो उन्होंने सोचा कि इस प्रश्न का युद्ध के द्वारा हमेशा के लिये निर्णय कर लिया जाय ।
शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध छेड देने की बात पर विचार करने के लिये संघ का एक अधिवेशन बुलाया ।
संघ के सदस्यों को सम्बोधित करके सेनापति ने कहा - “कोलियों ने हमारे लोगों पर आक्रमण किया । हमारे लोगों को पीछे हट जाना पड़ा । कोलियों ने इससे पहले भी अनेक बार ऐसी आक्रमणात्मक कारवाइयाँ  की हैं । हमने आज तक उन्हें सहन किया । लेकिन यह इसी तरह नहीं चल सकता । यह रुकना चाहिये और इसे रोकरे का एक ही तरीका है कि कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जाय । मेरा प्रस्ताव है कि कोलियो के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जाय । जो विरोध करना चाहे, वे बोलें ।"
सिद्धार्थ गौतम अपने स्थान पर खडा हुआ बोला –“मैं  इस प्रस्ताव का विरोध करता हूँ । युद्ध से कभी किसी समस्या का हल नहीं होता । युद्ध छेड देने से हमारे उद्देश्य की पूर्ति नही होगी । इससे एक युद्ध का बीजारोपण हो जायेगा । जो किसी की हत्या करता है, उसे कोई दूसरा हत्या करने वाला मिल जाता है; जो किसी को जीतता है उसे कोई दूसरा जीतने वाला मिल जाता है; जो किसी को लूटता  है उसे कोई लूटने वाला मिल जाता है ।"
सिद्धार्थ गौतम ने अपनी बात जारी रखी - “मुझे ऐसा लगता है कि शाक्यो को कोलियों के विरुद्ध युद्ध छेडने में जल्दबाजी से काम नहीं लेना चाहिये । पहले सावधानी से इस बात की जाँच करनी चाहिये कि वास्तव में दोषी पक्ष कौनसा है? मैंने सुना है कि हमारे आदिमयो ने भी ज्यादती की है । यदि ऐसा है तो हम भी निर्दोष नहीं है ।"
सेनापति ने उत्तर दिया - “यह ठिक है कि हमारे आदिमयो ने ही पहल की थी । लेकिन यह याद रहना चाहिये कि पह पानी लेने की भी यह हमारी ही बारी थी ।"
सिद्धार्थ गौतम ने कहा - “इससे स्पष्ट है कि हम भी सर्वथा निर्दोष नहीं है । इसिलये मेरा प्रस्ताव है कि हम अपने में से दो आदमी चुनें और कोलियों से भी कहा जाय कि वे भी अपने में से दो आदमी चुनें और फिर यह चारों मिलकर एक पाँचवाँ  आदमी चुनें । ये पाँचो आदमी मिलकर झगडे का निपटारा कर दें ।"
सिद्धार्थ गौतम ने प्रस्ताव में जो परिवर्तन सुझाया था उसका विधिवत् समर्थन हो गया । किन्तु सेनापति ने विरोध किया । कहा - “मुझे निश्चय है कि जब तक कोलियों को कड़ा दण्ड नही दिया जाता तब तक उनका यह टंटा समाप्त नहीं होगा ।"
तदनुसार सेनापति ने अपने प्रस्ताव पर लोगों के मत माँगे । बड़े  भारी बहुमत से प्रस्ताव पास हो गया ।


जेव्हा या संघर्षाची माहिती शाक्य व कोलीय यांना मिळाली तेव्हा हा प्रश्न आता युद्धानेच कायमचा निकालात काढावा असे त्याना वाटले.
म्हणून शाक्यांच्या सेनापतीने कोलियांशी युद्ध पुकारण्याच्या प्रश्नावर विचार करण्यासाठी शाक्य संघाचे अधिवेशन बोलाविले.
संघाच्या सभासदांना उद्देशून सेनापती म्हणाला, “आपल्या लोकांवर कोलियांनी हल्ला केला असून त्यात आपल्या लोकांना माघार घ्यावी लागली आहे. अशा प्रकारच्या आक्रमणाची कृत्ये यापूर्वी अनेक वेळा कोलियांकडून घडलेली आहेत. आम्ही ती आजपर्यंत सहन केली आहेत. पण यापुढे हे चालू देणे शक्य नाही. हे थांबलेच पाहिजे आणि हे थांबविण्याचा एकच मार्ग म्हणजे कोलियांच्याविरुद्ध युद्ध पुकारणे हाच होय. कोलियांच्या विरुद्ध संघाने युद्ध पुकारावे असा मी ठराव मांडतो. ज्यांचा विरोध असेल त्यांनी बोलावे.”
सिद्धार्थ गौतम आपल्या जागी उभा राहिला आणि म्हणाला, “या ठरावाला माझा विरोध आहे. युद्धाने कोणताही प्रश्न सुटत नाही. युद्ध करून आपला हेतु सफल होणार नाही. त्यामुळे दुसऱ्या युद्धाची बीजे रोवली जातील. जो दुसऱ्याची हत्या करतो त्याला त्याची हत्या करणारा दुसरा भेटतो. जो दुसऱ्याला जिंकतो त्याला जिंकणारा दुसरा भेटतो. जो दुसऱ्याला लुबाडतो त्याला लुबाडणारा दुसरा भेटतो.”
सिद्धार्थ गौतम पुढे म्हणाला, “संघाने कोलियांच्या विरुद्ध युद्धाची घोषणा करण्याची घाई करु नये, असे मला वाटते. प्रथम दोष कोणाचा याची खात्री करून घेण्यासाठी काळजीपूर्वक चौकशी केली पाहिजे. आपल्याही लोकांनी आक्रमण केले असल्याचे मी ऐकतो. हे जर खरे असेल तर आपणसुद्धा निर्दोष नाहीत हे सिद्ध होते.”
सेनापतीने उत्तर दिले, “होय, आपल्या लोकांनी अतिक्रमण केले, तथापि आपण हे विसरता कामा नये की, प्रथम पाणी घेण्याची ती पाळी आपलीच होती.”
सिद्धार्थ गौतम म्हणाला, “यावरून स्पष्ट होते को, आपण दोषापासून पूर्णपणे मुक्त नाही. म्हणून मी असे सुचवितो की, आपण आपल्यातून दोन माणस निवडावी व कोलियांना त्यांच्यापैकी दोन माणसे निवडावयास सांगावे आणि या चौघांनी मिळून पाचवा मनुष्य निवडून घ्यावा आणि या पाच जणांनी हे भांडण मिटवावे.”
सिद्धार्थ गौतमाच्या सूचनेला अनुमोदनही मिळाले. परंतु सेनापतीने या सूचनेला विरोध केला. तो म्हणाला, “माझी खात्री आहे की,  कोलियांचा  हा उपद्रव जोपर्यंत यांना कडक शासन केले जात नाही तोपर्यत थांबणार नाही.”
त्यानुसार सेनापतीने आपला प्रस्ताव मतास टाकला. फार मोठ्या बहुमताने तो संमत झाल्याचे घोषित करण्यात आले.






Next day the Senapati called another meeting of the Sakya Sangh to have his plan of mobilisation considered by the Sangh.
When the Sangh met, he proposed that he be permitted to proclaim an order calling to arms for the war against the Koliyas every Sakya between the ages of 20 and 50.
Seeing that his supporters were silent, Siddharth stood up, and addressing the Sangh, said: "Friends ! You may do what you like. You have a majority on your side, but I am sorry to say I shall oppose your decision in favour of mobilisation. I shall not join your army and I shall not take part in the war."
The Senapati grew angry and addressing Siddharth, said : "You must obey the majority decision of the Sangh. You are perhaps counting upon the fact that the Sangh has no power to order an offender to be hanged or to exile him without the sanction of the king of the Kosalas and that the king of the Kosalas will not give permission if either of the two sentences was passed against you by the Sangh."
"But remember the Sangh has other ways of punishing you. The Sangh can declare a social boycott against your family and the Sangh can confiscate your family lands. For this the Sangh does not have to obtain the permission of the king of the Kosalas."
Accordingly, Siddharth spoke to the Sangh. "Please do not punish my family. Do not put them in distress by subjecting them to a social boycott. Do not make them destitute by confiscating their land which is their only means of livelihood. They are innocent. I am the guilty person. Let me alone suffer for my wrong. Sentence me to death or exile, whichever you like. I will willingly accept it and I promise I shall not appeal to the king of the Kosalas.'"
The Senapati said : "It is difficult to accept your suggestion. For even if you voluntarily agreed to undergo the sentence of death or exile, the matter is sure to become known to the king of the Kosalas and he is sure to conclude that it is the Sangh which has inflicted this punishment and take action against the Sangh."
"If this is the difficulty I can easily suggest a way out," said Siddharth Gautama. "I can become a Parivrajaka and leave this country. It is a kind of an exile."
The Sangh felt that the proposal made by Siddharth was the best way out and they agreed to it.


दुसरे दिन सेनापति ने शाक्य संघ की दुसरी सभा बुलाई । इसका उद्देश्य था कि उसके अनिवार्य सैनिक- भर्ती के प्रस्ताव पर विचार हो ।
जब संघ एकत्र हुआ उसने प्रस्ताव किया कि उसे आज्ञा दी जाय कि वह बीस वर्ष और पचास वर्ष के बीच के प्रत्येक शाक्य के लिये कोलियों  के विरुद्ध लड़ने के निमत्त सेना में भर्ती होना अनिवार्य होने की घोषणा कर दे ।
जब सिद्धार्थ ने देखा कि उसके समर्थक मौन है  तो वह उठ खडा हुआ । और उसने संघ को सम्बोधित करके कहा - “मित्रों! आप जो चाहें  कर सकते है । आपके साथ बहुमत है । लेकिन मुझे खेद के साथ यह कहना पड़ता है कि मैं अनिवार्य सैनिक भर्ती का विरोध करूँगा । मैं आपकी सेना में सम्मिलित नहीं होऊँगा । मैं  युद्ध में भाग नहीं लूँगा ।"
सेनापति को क्रोध आ गया । वह बोला - “तुम्हे संघ के बहुमत के सामने सिर झुकाना होगा । शायद तुम्हें इस बात का बहुत भरोसा है कि कोशल-नरेश की अनुमति के बिना संघ अपनी आज्ञा की अवहेलना करने वाले को फांसी या देश से निकल जाने की सजा नहीं दे सकता और यदि इनमें से कोई भी एक दण्ड तुम्हें दिया जाय तो कोशल-नरेश इसकी अनुमति नहीं देगा ।"
“लेकिन याद रखो । संघ तुम्हें  दुसरे अनेक तरीकों से दण्डित कर सकता है । संघ तुम्हारे परिवार के सामाजिक बहिष्कार का निर्णय कर सकता है और संघ तुम्हारे परिवार के खेतों को जब्त कर सकता है । इसके लिये संघ को कोशल नरेश की अनुमति की आवश्यकता नहीं ।"
तद्नुसार सिद्धार्थ ने संघ को सम्बोधित किया - “कृपया मेरे परिवार को दण्डित न करे । सामाजिक बहिष्कार द्वारा उन्हें कष्ट न दें । उनके खेत जब्त करके उन्हें जीविकाविहीन न करे । वे निर्दोष है । अपराधी मैं ही हूँ । मुझे अकेले ही अपने अपराध का दण्ड भोगने दें । चाहे आप मुझे फांसी पर लटका दें और चाहे देश से निकाल दें- आप जो चाहें दण्ड दें । मैं खुशी से इसे स्वीकार कर लूंगा । और मै इस बात का वचन देता हूं कि मैं इस की शिकायत कोशल-नरेश से नही करूंगा ।"
सेनापति बोला - “तुम्हारी बात मानना कठिन है । क्योकि यदि तुम स्वेच्छा से भी ‘मृत्यु’ अथवा ‘देश-निकाले’ का वरण करो,  तो भी कोशल- नरेश को इसका पता लग ही जायेगा । वह निश्चयपूर्वक इसी परिणाम पर पहूँचेगा कि शाक्य-संघ ने ही यह दण्ड दिया होगा और वह शाक्य-संघ के विरुद्ध कारवाई करेगा ।"
“यदि यह कठिनाई है, तो मैं आसानी से एक उपाय सुझा सकता हूँ”, सिद्धार्थ-गौतम का उत्तर था । “मैं परिव्राजक बन सकता हूं और देश के बाहर चला जा सकता हूँ । यह भी एक प्रकार का ‘देश- निकाला’ ही है ।"
संघ को लगा कि सिद्धार्थ का सुझाव ही इस बिकट समस्या का सर्वश्रेष्ठ हल है । संघ ने इसे स्वीकार कर लिया ।


दुसऱ्या  दिवशी,  युद्धासाठी सैन्याची  उभारणी करण्यासंबंधीच्या आपल्या योजनेचा संघाने विचार करावा म्हणून सेनापतीने शाक्य संघाची दुसरी सभा बोलाविली.
संघाची सभा भरल्यावर, कोलियांशी युद्ध करण्यासाठी २० ते ५० वर्षे वयाच्या प्रत्येक शाक्य पुरुषाने सैन्यात दाखल व्हावे, अशी घोषणा करण्यास संघाने मला परवानगी द्यावी, असा सेनापतीने ठराव मांडला.
जेव्हा सिद्धार्थाने पाहिले की, आपणास पाठिंबा देणारे  मौन धारण करून बसले आहेत तेव्हा तो उभा राहिला व संघाला उद्देशून म्हणाला, मित्रहो ! तुम्हाला जे वाटेल ते तुम्ही करा. तुमच्या बाजूला बहुमत आहे परंतु मला खेदाने म्हणावे लागत आहे की, सैन्यभरतीच्या तुमच्या निर्णयाचा मी विरोध करीन. मी तुमच्या सैन्यात दाखल होणार नाही आणि मी युद्धात भाग घेणार नाही.”
सेनापतीला राग आला आणि सिद्धार्थाला उद्देशुन तो म्हणाला, “बहुमताने  घेतलेल्या संघाच्या निर्णयाचे तू पालन केलेच पाहिजे. कदाचित तुला असे वाटत असेल की, कोशल राजाच्या अनुज्ञेवाचून संघाची आज्ञा मोडणाऱ्याला देहान्ताची किंवा देशत्यागाची शिक्षा संघ देऊ शकत नाही आणि जर ह्यापैकी कोणतीही एक शिक्षा तुला संघाने जरी फर्मावली तरी कोशल राजा त्यास आपली अनुमती देणार नाही.”
“पण लक्षात ठेव तुला शासन करण्याचे संघाजवळ दुसरे  मार्ग आहेत. संघ तुझ्या कुटुंबावर सामाजिक बहिष्कार टाकू शकेल आणि सघ तुझ्या कुटुंबाची जमीन जप्त करू शकेल. याकरिता कोशल राजाची अनुमती मिळविण्याची संघाला आवश्यकता नाही.”
त्यानुसार सिद्धार्थ संघाला उद्देशून म्हणाला, “कृपा करून माझ्या कुटुंबियांना शासन करू नका. सामाजिक बहिष्काराच्या आपत्तीत लोटून त्यांना दुःख देऊ नका. त्यांच्या उपजीविकेचे एकमेव साधन असलेली त्यांची शेती हिरावून घेऊन त्यांची उपासमार करू नका. ते निरपराध आहेत. अपराधी मीच आहे. माझ्या अपराधाची शिक्षा मला एकट्यालाच भोगू द्या. मला देहान्ताची वा देशत्यागाची यांपैकी तुम्हाला योग्य वाटेल ती शिक्षा द्या, ती मी खुषीने स्वीकारीन. याविषयी कोशलाधिपतीकडे मी मुळीच याचना करणार नाही याचे मी आपणांस अभिवचन देतो.”
सेनापती म्हणाला, “तुझे म्हणणे मान्य करणे कठीण आहे. कारण, जरी तू देहान्ताची किंवा देशत्यागाची शिक्षा भोगण्यास स्वेच्छेने तयार झालास तरी ही गोष्ट कोशलाधिपतीस समजणारच; आणि तो असाच निष्कर्ष काढील की, ही शिक्षा संघानेच दिली आहे आणि त्यामुळे तो संघाला जाब विचारील.”
सिद्धार्थ गौतम म्हणाला, “हीच जर अडचण असेल तर मी एक मार्ग सुचवितो. मी परिव्राजक होतो आणि हा देश सोडून जातो. तो एक प्रकाराचा देशत्यागच होय.”
सिद्धार्थाने सुचविलेला मार्ग हाच या बिकट समस्येपासून सुटण्याचा उत्तम मार्ग आहे असे संघाला वाटले आणि त्याने तो मान्य केला.





After finishing the business before the meeting, the Sangh was about to rise when a young Sakya got up in his place and said : "Give me a hearing, I have something important to say."
Being granted permission to speak, he said : " I have no doubt that Siddharth Gautama will keep his promise and leave the country immediately. There is, however, one question over which I do not feel very happy."
"Now that Siddharth will soon be out of sight, does the Sangh propose to give immediate effect to its declaration of war against the Koliyas ?"
"I want the Sangh to give further consideration to this question. In any event, the king of the Kosalas is bound to come to know of the exile of Siddharth Gautama. If the Sakyas declare a war against the Koliyas immediately, the king of Kosalas will understand that Siddharth left only because he was opposed to war against the Koliyas. This will not go well with us."
"I, therefore, propose that we should also allow an interval to pass between the exile of Siddharth Gautama and the actual commencement of hostilities so as not to allow the King of Kosala to establish any connection between the two."
The Sangh realised that this was a very important proposal. And as a matter of expediency, the Sangh agreed to accept it.
Thus ended the tragic session of the Sakya Sangh


सभा के सम्मुख जो कार्यक्रम था उसे समाप्त कर संघ विसर्जित होने को ही था कि एक तरुण शाक्य ने अपने स्थान पर खड़े होकर कहा “कृपया मेरी बात सुनें । मैं कुछ महत्व की सुचना देना चाहता हूँ।"
उसे बोलने की अनुमति मिली तो उसने कहा - “मुझे इसमें तनिक सन्देह नहीं कि सिद्धार्थ गौतम अपने वचन का पालन करेगा और तुरन्त देश के बाहर चल जायेगा । लेकिन एक बात है, जिससे मैं थोडा चिन्तित हूँ ।"
अब जब कि सिद्धार्थ आँखों से अदृश्य हो जायेगा तो क्या संघ का यही इरादा है कि कोलियों के विरुद्ध की घोषणा कर दी जाय ।"
“मै चाहता हूँ कि संघ पुन: इस बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार करे । कुछ भी हो कोशल-नरेश को सिद्धार्थ-गौतम के देश-निकाले  का तो पता ही लग जायेगा । यदि शाक्य तुरन्त कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देंगे तो कोशल-नरेश समझ जायेगा कि सिद्धार्थ गौतम ने इसीलिये देश का त्याग किया होगा क्योंकि वह कोलियों के विरुद्ध युद्ध छेड देने का विरोधी था । यह हमारे लिये अच्छा न होगा ।"
“इसिलये मेरा प्रस्ताव है कि हमें सिद्धार्थ-गौतम को गृह-त्याग और कोलियों के विरुद्ध वास्तविक युद्ध छेड देने के बीच कुछ समय को यू गुजार देना चाहिये । अन्यथा केशल-नरेश इन दोनो घटनाओ मे संबंध स्थापित कर लेगा ।"
संघ को लगा कि निश्चय से यह बात महत्वपूर्ण है । नीति की दृष्टि से यह मान ली गई ।
इस प्रकार शाक्य-संघ की यह दु:खान्त सभा समाप्त हुई ।



सभेचे कार्य संपल्यानंतर संघसभा विसर्जित  होण्यापूर्वी च एक तरुण शाक्य आपल्या जागेवर उठून उभा राहिला आणि म्हणाला, “कृपा करून माझ म्हणणं ऐका मला काही महत्वाची गोष्ट सांगा वयाची आहे.”
बोलण्याची परवानगी मिळाल्यावर तो म्हणाला, “सिद्धार्थ गौतम आपले वचन पाळील आणि त्वरित देशत्याग करील याबद्दल मला शंका नाही. तथापि एकच प्रश्न आहे की, ज्याच्यामुळे  माझे समाधान होत नाही.”
“आता, ज्या अर्थी सिद्धार्थ येथून लवकरच दृष्टीआड होणार आहे त्या अर्थी कोलियांविरुद्ध युद्धाची घोषणा ताबडतोब करण्याचा संघाचा विचार आहे काय?”
“या प्रश्नाचा संघाने अधिक विचार करावा अशी माझी इच्छा आहे. काहीही झाले तरी सिद्धार्थ गौतमाच्या देशत्यागाची माहिती कोशलाधिपतीला कळणारच आहे. जर कोलियांविरुद्ध शाक्यांनी इतक्यात युद्ध पुकारले तर कोलियांशी युद्ध करण्याच्या विरुद्ध सिद्धार्थ असल्यामुळेच त्याला देशत्याग करावा लागला असे कोशलाधिपतीला वाटेल. हे आमच्या दृष्टीने चांगले ठरणार नाही!”
“म्हणून मी पुन्हा सुचवितो की, सिद्धार्थ गौतमाचा देशत्याग व कोलियांशी प्रत्यक्ष युद्धाचा प्रारंभ यांच्यात काही काळ जाऊ द्यावा, म्हणजे कोशलाधिपतीला या दोन घटनांमध्ये संबध जोडण्यास वाव मिळणार नाही.”
संघाला पटले की, ही फारच महत्वाची सूचना आहे; आणि तात्कालिक निर्णयाच्या दृष्टीने ही सूचना स्वीकारण्याचे संघाने मान्य केले.
अशा प्रकारे शाक्य संघाची ही दु:खपर्यवसायी सभा संपली.













Ref   : The Buddha and His Dhamma - Dr. B. R. Ambedkar
संदर्भ : बुद्ध और उनका धम्म - डॉ. भि. रा. अम्बेडकर
संदर्भ : बुद्ध आणि त्यांचा धम्म - डॉ. भि. रा. आंबेडकर



Sunday, 4 June 2017

Siddhartha's Initiation into the Sakya Sangh | सिद्धार्थ कि शाक्य संघ मे दीक्षा | सिद्धार्थ चा शाक्य संघात प्रवेश





The Sakyas had their Sangh. Every Sakya youth above twenty had to be initiated into the Sangh and be a member of the Sangh.
Siddharth Gautama had reached the age of twenty. It was time for him to be initiated into the Sangh and become a member thereof.
The Sakyas had a meeting-house which they called Sansthagar. It was situated in
Kapilavatsu. The session of the Sangh was also held in the Sansthagar.
With the object of getting Siddharth initiated into the Sangh, Suddhodana asked the Purohit of the Sakyas to convene a meeting of the Sangh.
Accordingly the Sangh met at Kapilavatsu in the Sansthagar of the Sakyas.




शाक्यों का अपना संघ था । बीस वर्ष की आयु होने पर हर शाक्य तरुण को शाक्य संघ में दीक्षित होना पड़ता था और संघ का सदस्य होना होता था ।
सिद्धार्थ गौतम बीस वर्ष का हो चुका था । अब यह समय था कि वह संघ मे दीक्षीत हो और उसका सदस्य बने ।
शाक्यों का अपना एक संघ- भवन था, जिसे वह संथागार कहने थे । यह कपिलवस्तु में ही था । संघ-सभायें संथगार में ही होती थी ।
सिद्धार्थ को संघ में दीक्षित कराने के लिये शुद्धोदन ने शाक्य- पुरोहित को संघ की एक सभा बुलाने के लिये कहा ।

तदनुसार कपिलवस्तु में शाक्यों के संथागार में संघ एकत्रित हुआ ।



शाक्यांचा एक संघ होता. वयाची वीस वर्षे झाल्यावर प्रत्येक  शाक्य तरुणाला संघाची दीक्षा घ्यावी लागत असे व संघाचे सभासद व्हावे लागे.
सिद्धार्थ गौतमाला वीस वर्षे पूर्ण झाली होती. संघाची दीक्षा घेऊन त्याचे सभासद होण्यास ते योग्य असे वय होते.
शाक्यांचे एक सभागृह होते. त्याला ते संथागारम्हणत. ते कपिलवस्तु नगरात होते. संघाच्या सभाही ह्याच संथागारात होत असत.
सिद्धार्थाला शाक्य संघाची दीक्षा देण्याच्या हेतूने शुद्धोदनाने शाक्यांच्या पुरोहिताला संघाची सभा बोलाविण्यास सांगतले.
त्यानुसार कपिलवस्तु येथील शाक्यांच्या संथागारात संघाची सभा झाली.





At the meeting of the Sangh, the Purohit proposed that Siddharth be enrolled as a member of the Sangh.
The Senapati of the Sakyas then rose in his seat and addressed the Sangh as follows : "Siddharth Gautama, born in the family of Suddhodana of the Sakya clan, desires to be a member of the Sangh. He is twenty years of age and is in every way fit to be a member of the Sangh. I, therefore, move that he be made a member of the Sakya Sangh. Pray, those who are against the motion speak."
No one spoke against it. "A second time do I ask those who are against the motion to speak," said the Senapati.
No one rose to speak against the motion. Again the Senapati said : "A third time do I ask those who are against the motion to speak."
Even for the third time no one spoke against it.
It was the rule of procedure among the Sakyas that there could be no debate without a motion and no motion could be declared carried unless it was passed three times.
The motion of the Senapati having been carried three times without opposition, Siddharth was declared to have been duly admitted as a member of the Sakya Sangh.



सभा में पुरोहित ने प्रस्ताव किया कि सिद्धार्थ को संघ का सदस्य बनाया जाय ।
शाक्य-सेनापति अपने स्थान पर खड़ा हुआ और उसने संघ को सम्बोधित किया -- शाक्य कुल के शुद्धोदन के परिवार में उत्पन्न गौतम संघ का सदस्य बनना चाहता है । उसकी आयु पूरे बीस वर्ष की है और वह हर तरह से संघ का सदस्य बनने के योग्य है । इसिलये मेरा प्रस्ताव है कि उसे शाक्य-संघ का सदस्य बनाया जाय । यदि कोई इस प्रस्ताव के विरुद्ध हो तो बोले "
किसी ने प्रस्ताव का विरोध नहीं किया । सेनापति बोला – “मैं दुसिरी बार भी पूछता हूँ कि यदि कोई प्रस्ताव के विरुद्ध हो तो बोले "
प्रस्ताव के विरुद्ध बोलने के लिये कोई खडा नहीं हुआ । सेनापति ने फिर कहा- मै तीसरी बार भी पूछता हूँ कि यदि कोई प्रस्ताव के विरूद्ध हो तो बोले "
तीसरी बार भी कोई प्रस्ताव के विरुद्ध नहीं बोला ।
शाक्यों में यह नियम था कि बिना प्रस्ताव के कोई कारवाई न हो सकती थी और जब तक कोई प्रस्ताव तीन बार पास न हो तब तक वह कार्य रूप में परिणत नहीं किया जा सकता था ।
क्योंकि सेनापति का प्रस्ताव तीन बार निविरोध पास हो गया थाइसिलये सिद्धार्थ के विधिवत् शाक्य-संघ का सदस्य बन जाने की घोषणा कर दी गई ।



सिद्धार्थाला संघाचे सभासद करून घ्यावे म्हणून पुरोहिताने संघाच्या सभेत ठराव मांडला.
तेव्हा शाक्यांचा सेनापती आपल्या जागेवर उठून उभा राहिला. संघाला उद्देशून त्याने पुढीलप्रमाणे भाषण केले : शाक्य वंशातील शुद्धोदनाच्या कुळात जन्मलेला सिद्धार्थ गौतम संघाचा सभासद होऊ इच्छितो. त्याचे वय वीस वर्षाच असून तो सर्व दृष्टींनी ह्या संघाचा सदस्य होण्यास पात्र आहे. म्हणून त्याला ह्या संघाचे सदस्य करून घ्यावेअसे मी सुचवितो. माझी अशी प्रार्थना आहे की, या प्रस्तावाच्या विरुद्ध असणाऱ्यांनी आपले मत व्यक्त करावे.
या सूचनेविरुद्ध कोणीही बोलले नाही. सेनापती पुन्हा म्हणाला, “मी दुसऱ्यांदा सांगतो की, जे कोणी या ठरावाच्या विरुद्ध असतील त्यांनी बोलावे.
ठरावाविरुद्ध बोलण्यास कोणीही उभे राहिले नाही. सेनापतीने पुन्हा म्हटले, “मी तिसऱ्यांदा सांगतो की, जे कोणी या ठरावाविरुद्ध असतील त्यांनी बोलावे.
तिसऱ्या वेळी सुद्धा कोणीही ठरावाविरुद्ध बोलले नाही.
शाक्यांचा असा नियम होता की, एखाद्या ठरावाशिवाय त्यांच्या संघात कोणतीही चर्चा  होऊ शकत नव्हती व कोणताही ठराव तीन वेळा संमत झाल्याखेरीज तो संमत झाला असे जाहीर करता येत नव्हते.

सेनापतीने मांडलेला ठराव तीन वेळा बिनविरोध संमत झाल्यामुळे सिद्धार्थाचा शाक्य संघात अंतर्भाव करून तो संघाचा सदस्य झाल्याचे जाहीर करण्यात आले.










Ref   : The Buddha and His Dhamma - Dr. B. R. Ambedkar
संदर्भ : बुद्ध और उनका धम्म - डॉ. भि. रा. अम्बेडकर
संदर्भ : बुद्ध आणि त्यांचा धम्म - डॉ. भि. रा. आंबेडकर